UP के पूर्व CM Tribhuvan Narayan Singh, जो मठ के भरोसे रहकर हार गए थे उप चुनाव

नई दिल्ली: देश की राजनीति में माना जाता है कि उपचुनाव के नतीजे सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में ही आते हैं. खासतौर से जब कोई CM खुद उपचुनाव लड़ रहा हो तब तो उस चुनाव के परिणाम के बारे में शायद ही किसी को किसी तरह का अंदेशा रहता होगा. लेकिन अगर अब ऐसा होता है तो जान लीजिए कि जरूरी नहीं कि पहले भी ऐसा होता होगा क्योंकि 1971 में गोरखपुर के मानीराम विधान सभा उपचुनाव में इस सोच के इतर ऐसा नतीजा निकला जिसने भारतीय राजनीति की दिशा बदल कर रख दी.

सीएम रहते हुए हार गए उप चुनाव

यहां बात यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह की जो वाराणसी के रहने वाले थे, उन्होंने पहली बार 1952 में चंदौली से लोकसभा का चुनाव लड़ा था. 1957 के चुनाव में उन्होंने इसी सीट से दिग्गज समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया को हराया था. 60 के दशक में वो केंद्र सरकार में उद्योग और फिर लौह और इस्पात मंत्री रहे.

53 साल पहले की अनसुनी कहानी

दरअसल यूपी में साल 1969 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के चंद्रभानु गुप्ता प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन सालभर के भीतर उन्हें भारतीय क्रांति दल के चौधरी चरण सिंह के लिए अपनी गद्दी छोड़नी पड़ी थी. हालांकि चरण सिंह 7 महीने ही CM रह पाए थे. बहुमत खोने के बाद उन्होंने विधानसभा भंग कर देने की सिफारिश की थी, लेकिन राज्यपाल बी गोपाला रेड्डी ने उनकी सिफारिश नहीं मानी और इस्तीफा देने को कहा.

आखिरकार 17 दिन के राष्ट्रपति शासन के बाद त्रिभुवन नारायण सिंह को संयुक्त विधायक दल के नेता के तौर पर 18 अक्टूबर, 1970 को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाई गई थी. उन्हें भारतीय जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस (O) का समर्थन प्राप्त था. उस समय सदन में उनके समर्थकों की संख्या 257 थी. त्रिभुवन नारायण सिंह को चौधरी चरण सिंह का समर्थन प्राप्त था. तब त्रिभुवन नारायण सिंह राज्य सभा के सांसद थे यानी उत्तर प्रदेश विधान सभा के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे.

राजनीतिक जानकारों के मुताबिक टीएन सिंह हालांकि चरण सिंह के आदमी नहीं थे, लेकिन वो अकेले ऐसे नेता थे जिन्हें CM बनाए जाने पर चरण सिंह को कोई शिकायत भी नहीं थी. यानी दिलचस्प बात ये थी कि त्रिभुवन नारायण सिंह के मुख्यमंत्री बनने की कहानी ये थी कि उन पर किसी के भी आदमी होने का टैग नहीं था मतलब ये कि वो किसी के भी यस मैन नहीं थे.

‘वो राजनीति कुछ और थी जब ठुकरा दिया जाता था बड़े से बड़ा ऑफर’ 

राजनीतिक पुस्तक ‘एन इंडियन पॉलिटिकल लाइफ़: चरण सिंह एंड कांग्रेस पॉलिटिक्स’ में लिखे एक चेप्टर के मुताबिक 1971 के लोकसभा चुनाव से पहले इंदिरा गांधी ने भारतीय क्रांति दल के कांग्रेस में विलय का प्रस्ताव रखा था. वो बीकेडी को लोकसभा में 30 सीट देने के साथ चरण सिंह को सन 1974 तक मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार थीं, लेकिन चरण सिंह ने इस प्रस्ताव को इस आधार पर नामंज़ूर कर दिया था कि वो टीएन सिंह के समर्थन का वादा कर चुके हैं और अब अपने वादे से मुकर नहीं सकते.

महंत अवैद्यनाथ ने मानीराम सीट से इस्तीफा दिया

यूपी के वर्तमान सीएम योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ संसद का चुनाव जीत गए थे, इसलिए उन्होंने गोरखपुर की मानीराम की सीट से इस्तीफा दे दिया था. त्रिभुवन नारायण सिंह ने इसी सीट से विधानसभा उपचुनाव लड़ने का फ़ैसला किया. त्रिभुवन नारायण सिंह अपनी जीत के प्रति इतने आश्वस्त थे कि वो एक बार भी अपने चुनावी क्षेत्र में वोट मांगने नहीं गए.

दांव पर लगी थी इंदिरा गांधी की प्रतिष्ठा

बिहार के नेता कर्पूरी ठाकुर को त्रिभुवन नारायण सिंह के चुनाव प्रचार की ज़िम्मेदारी दी गई थी. आमतौर से प्रधानमंत्री उपचुनाव में प्रचार करने नहीं जाता, लेकिन मार्च 1971 में हुए विधानसभा उपचुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कांग्रेस के उम्मीदवार राम कृष्ण द्विवेदी के समर्थन में प्रचार करने मानीराम पहुंचीं थीं. हालांकि इसकी वजह ये थी कि कांग्रेस का बंटवारा हो चुका था और त्रिभुवन नारायण सिंह, मोरारजी देसाई और चंद्रभानु गुप्त के समर्थक थे. इसलिए इंदिरा गांधी नहीं चाहती थीं कि टीएन सिंह विधान सभा का चुनाव जीतकर विधायक बनें.

क्या इसलिए पलटी बाजी?

दरअसल इस उप चुनाव की शुरुआत से ही त्रिभुवन नारायण सिंह की जीत की अटकलें लग रही थीं. अचानक इंदिरा गांधी की चुनावी सभा में कुछ लोगों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया जिसकी वजह से चुनावी हवा पूरी तरह से टीएन सिंह के खिलाफ हो गई. तब अमर उजाला अखबार में बतौर संवाददाता रहे राम कृष्ण द्विवेदी ने CM त्रिभुवन नारायण सिंह को करीब 15,000 वोटों से हराया था. ये पहला मौका था जब कोई CM इस तरह उपचुनाव हारा हो. चुनाव परिणाम तब आया जब सदन में राज्यपाल का अभिभाषण चल रहा था. टीएन सिंह ने भाषण के बीचोंबीच ही अपने इस्तीफे का ऐलान करके सबको चौंका दिया.

इंदिरा लहर की नींव

1969 में महंत अवैद्यनाथ ने इसी सीट पर राम कृष्ण द्विवेद्वी को करीब 3,000 वोट से हराया था. गोरखपुर में मानीराम विधानसभा क्षेत्र अब अस्तित्व में नहीं है. परिसीमन के बाद अब इसका क्षेत्र गोरखपुर सदर और पिपराइच विधानसभा का हिस्सा बन चुका है. खैर जो भी हो आखिर इसी उप चुनाव के नतीजे ने इंदिरा गांधी के पक्ष में चुनावी हवा बनाने में अहम भूमिका निभाई. मानीराम उप चुनाव के कुछ सप्ताह बाद ही लोकसभा के चुनाव हुए जिसमें इंदिरा गांधी ने भारी जीत दर्ज की. जिसके बाद इंदिरा गांधी ने एक तरफ बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो दूसरी ओर राजाओं के ‘प्रिवी पर्स’ बंद करने का एलान किया. उनके ‘ग़रीबी हटाओ’ के नारे को इस चुनाव नतीजे से बहुत बल मिला और पूरे देश में इंदिरा लहर का असर साफ दिखाई पड़ा.

टीएन सिंह का फिर क्या हुआ?

इसी कड़ी में बात पांच साल पहले यानी 2017 की तो चुनावी नतीजों के बाद योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) जब UP के मुख्यमंत्री चुने गए और उन्होंने अपनी लोकसभा सीट से इस्तीफा दे दिया, तो वो विधान सभा का उप चुनाव लड़ने के बजाए विधान परिषद के रास्ते सदन में दाखिल हुए. तब शायद उनके मन में त्रिभुवन नारायण सिंह के सियासी हश्र की याद रही होगी. जिनको उनके आध्यात्मिक गुरु का सहयोग चुनाव नहीं जितवा सका था. इसके बाद त्रिभुवन नारायण सिंह ने राज्यसभा का रुख किया और वो 1970 से 1976 तक राज्यसभा के सदस्य रहे. 1977 में जब जनता पार्टी सत्ता में आई तो उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाया गया.

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